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वन नेशन-वन इलेक्शन को लेकर सियासी सरगर्मी हुई तेज , जानिए क्या होगा फायदा, संविधान में करने पड़ेंगे ये बड़े बदलाव

केन्द्र सरकार द्वारा बुलाये गए इस विशेष सत्र को लेकर सियासी पंडितों के साथ-साथ राजनीतिक दलों के बीच भी वन नेशन-वन इलेक्शन को लेकर सुगबुगाहट तेज हो गयी है।

आगामी 18 सितंबर से 22 सितंबर को केन्द्र की मोदी सरकार की तरफ से बड़ा फैसला लेते हुए संसद का एक विशेष सत्र बुलाया गया है। 18 से 22 सितंबर तक बुलाए गये संसद के इस विशेष सत्र में कुल 5 बैठकें होंगी जिसमें “एक राष्ट्र एक चुनाव” जैसी विभिन्न मुद्दो पर चर्चा होनी है. संसद के इस विशेष सत्र के बारे में संसदीय कार्यमंत्री प्रह्लाद जोशी द्वारा दी गई जानकारी के बाद देश की सियासत में भुचाल आ गया है या कहें की कई तरह के सवाल सियासी गलियारों में तैरने लगे हैं। विभिन्न पार्टियों द्वारा ढेर सारे कयास भी लगाए जा रहे हैं।

केन्द्र सरकार द्वारा बुलाये गए इस विशेष सत्र को लेकर सियासी पंडितों के साथ-साथ राजनीतिक दलों के बीच भी वन नेशन-वन इलेक्शन को लेकर सुगबुगाहट तेज हो गयी है। इस सरगर्मी को उस वक्त और बल मिला गया, जब केन्द्र सरकार ने इस मामले में पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अगुवाई में एक उच्चस्तरीय कमेटी के गठन होने का ऐलान कर दिया। हालांकी इसकी अधिकारिक पुष्टी अभी तक नही हुइ हे.

 

भारत देश में कई तरह के चुनाव कइ चरणों में कराये जाते हैं लेकिन इस बार पंचायत से लेकर विधानसभा और लोकसभा तक के सभी चुनाव एक साथ कराने को लेकर लंबे समय से चर्चा चल रही थी लिहाजा मोदी सरकार द्वारा बुलाये गये संसद का विशेष सत्र के बाद ये और तेज हो गयी है। केन्द्र में मौजूद मोदी सरकार का यह मानना है कि वन नेशन-वन इलेक्शन से वक्त और संसाधन दोनों की बचत होगी। जिससे इलेक्शन कराने में खर्च होने वाले करोड़ों रुपये देश के विकास पर खर्च किये जा सकेंगे।

 

इस पूरे प्रकरण में राजनैतिक जानकारों का मानना है कि वन नेशन-वन इलेक्शन को लेकर बहुत सारे पेंच हैं। इसे पुरा करने के लिए न सिर्फ देश के सभी प्रमुख राजनीतिक दलों को एकसाथ आना होगा वहीं कई राज्यों में सरकारों को कुर्बानी भी देनी पड़ सकती है। जिस कारण से विपक्ष के अधिकतर और खासकर क्षेत्रीय दल इसके निर्णय के खिलाफ हैं। क्योंकी उन्हें डर है कि एकसाथ चुनाव होने की स्थिति में राज्यों में भी उनकी सरकार बननी थोडी मुश्किल हो जाएगी।

 

बताया जा रहा है कि भारत में प्रत्येक वर्ष 5-6 राज्यों में चुनाव कराना पडता हैं। इसलिए वन नेशन-वन इलेक्शन के समर्थकों का कहना है कि इससे विकास कार्यों में बाधा उतपन्न होती है।ओडिशा का उदाहरण देते हुए जानकारों का कहना है की  ओडिशा में 2004 के बाद से चारों विधानसभा चुनाव, लोकसभा चुनाव के साथ हुए और उसमें नतीजे भी अलग-अलग रहे हैं।एक साथ चुनाव होने से ओडिसा में आचार संहिता बहुत कम देर के लिए लागू होती है, जिसकी वजह से सरकार के कामकाज में दूसरे राज्यों के मुकाबले कम खलल पड़ता है।

गौरतलब है कि भारत में इससे पूर्व भी कई मर्तबा एकसाथ विधानसभा और लोकसभा के चुनाव हो चुके हैं। 1951-52, 1957, 1962 और 1967 में लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एकसाथ हुए थे। हालांकि देश में अलग-अलग चुनावों की स्थिति तब बनीं, जब कई राज्यों में विभिन्न कारणों से राज्य सरकारें गिर गई थी।

इस मामले को लेकर विधि आयोग भी अपनी रिपोर्ट दे चुका है। जिसमे आयोग के द्वारा इस संबंध में एकसाथ चुनाव कराने के साथ ही कई दूसरे विकल्प भी सरकार को सुझाए गए हैं। फिलहाल इसकी जरूरत इसलिए महसूस होने लगी है कि बार-बार होने वाले चुनाव देश के विकास में बाधा बन रहे हैं।

संविधान के जानकारों की माने तो वन नेशन-वन इलेक्शन को लेकर क़ानून में कई संशोधन करने पड़ेंगे जो बेहद ही जरूरी होंगे। पुरे भारत में एकसाथ विधानसभा और लोकसभा के चुनाव कराने को लेकर संविधान के इन 5 अनुच्छेदों में संशोधन करना पड़ेगा।

Article 83 : संसद के दोनों सदनों की अवधि के संबंध में।

Article 85 : राष्ट्रपति द्वारा लोकसभा का विघटन ।

Article 172 : राज्य विधानसभा की अवधि ।

Article 174 : राज्य विधानसभा के विघटन से संबंधित ।

Article 356 : राज्यों में राष्ट्रपति शासन लागू करना।

अगर देश में एक साथ चुनाव को मंजूरी मिल जाती है तो वन नेशन-वन इलेक्शन को लेकर अतिरिक्त EVM और VVPAT की जरूरत पड़ेगी। जिसपर हजारों करोड़ रुपये का अतिरिक्त खर्च आएगा। यदी वन नेशन-वन इलेक्शन को लागू किया जाता है तो देश में बड़ी संख्या में अतिरिक्त चुनाव कर्मियों और सुरक्षा बलों की जरूरत पड़ेगी ताकि चुनाव शांतिपूर्ण तरीके से संपन्न कराई जा सके।

 

वहीँ राजनैतिक जानकारों का कहना है की वन नेशन-वन इलेक्शन से धीरे-धीरे अतिरिक्त खर्च में कमी आएगी लेकिन शुरुआत में कुछ खर्च बढ़ सकते हैं,लेकिन इसके दूरगामी परिणाम होंगे। इसके अलावा एक साथ चुनाव कराने को लेकर समर्थकों का तर्क है कि इससे पूरे देश में प्रशासनिक व्यवस्था में दक्षता भी बढ़ेगी। क्योकि कहा जाता है कि अलग-अलग मतदान के दौरान प्रशासनिक व्यवस्था की गति काफी धीमी हो जाती है। जिस कारण से सामान्य प्रशासनिक कर्तव्य चुनाव से प्रभावित होते हैं।

वन नेशन-वन इलेक्शन के समर्थन में यह भी कहा जाता है कि इससे केंद्र और राज्य सरकारों की नीतियों और कार्यक्रमों में निरंतरता सुनिश्चित करने में भी मदद मिलेगी। क्युकी वर्तमान में जब भी चुनाव कराने होते हैं तो आदर्श आचार संहिता लागू की जाती है। जिस कारण से उस अवधि के दौरान लोक कल्याण के लिए नई परियोजनाओं के शुरूआत पर प्रतिबंध लगा दिया जाता है।

वन नेशन-वन इलेक्शन के संबंध में प्रधानमंत्री मोदी भी कह चुके हैं कि एक देश-एक चुनाव से देश के संसाधनों की बड़ी बचत होगी। साथ ही साथ विकास की गति भी धीमी नहीं होगी।

 

Brajesh Kumar

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