आम आदमी पार्टी नेता संजय सिंह दूसरी बार राज्यसभा सांसद के रूप में नहीं ले पाए शपथ
इस मामले में राज्यसभा के नियमों और संविधान के प्रावधानों की खलल का सवाल उठ रहा है।
संजय सिंह, जो आम आदमी पार्टी (आप) के नेता हैं, एक अत्यंत असमान और चिंताजनक स्थिति में हैं। उन्हें दूसरी बार राज्यसभा सांसद के रूप में शपथ नहीं लेने दिया गया है। इस मामले में राज्यसभा के नियमों और संविधान के प्रावधानों की खलल का सवाल उठ रहा है।
संजय सिंह के मामले में विशेषाधिकार समिति के निर्णय की देरी के चलते उनकी सदस्यता संसद से बाहर रह गई है। जिसके चलते, एक नया कार्यकाल शुरू होने के बाद उन्हें शपथ ग्रहण का अवसर नहीं मिल पाया। यह मामला संविधान के अनुच्छेद 99 के संवैधानिक विशेषाधिकारों के खिलाफ है, जो सदस्यों को शपथ लेने का हक़ देता है।
विशेषाधिकार समिति को किसी मामले पर 30 दिनों में निर्णय लेना होता है, लेकिन इस मामले में निर्णय की देरी से संजय सिंह को नुकसान उठाना पड़ा है। इससे साफ होता है कि संविधान के प्रावधानों का उल्लंघन हुआ है।
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इस मामले में संजय सिंह के साथ हुए इस अन्यायिक व्यवहार की बात करते हुए, राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के राज्यसभा सांसद मनोज कुमार झा ने एक पोस्ट में कहा, “यह तथाकथित अमृत काल का नया संसदीय प्रतिमान है।” यह बात समझने योग्य है कि विशेषाधिकार समिति की लापरवाही ने संजय सिंह को संसद से बाहर किया है, जो न्यायाधीशों और संविधान के प्रावधानों के खिलाफ है।
यहां एक और पहलू है कि संजय सिंह का निलंबन और उनकी सदस्यता का समापन किया गया है, जो कि उनके कर्तव्यों का उल्लंघन है। राज्यसभा के सभापति और विशेषाधिकार समिति के निर्णय के बावजूद, उन्हें संसद भवन में शपथ लेने का अवसर नहीं मिला। यह एक सामाजिक न्याय का प्रश्न उठाता है कि क्या एक सांसद को उसके कर्तव्यों का निष्पादन करने का अवसर नहीं मिलना चाहिए।
आप के प्रवक्ता सौरभ भारद्वाज ने कहा, “मुझे लगता है कि राज्यसभा के माननीय सभापति इस देश के संवैधानिक प्रावधानों के खिलाफ जा रहे हैं। भारद्वाज ने यह भी कहा भले ही यह माना जाए कि निलंबन के बजाय, उन्हें निष्कासित कर दिया गया था, या उनकी सदस्यता छीन ली गई थी – यह अधिकतम है जो राज्यसभा के सभापति विशेषाधिकार समिति के माध्यम से कर सकते थे।
संजय सिंह के मामले में सामान्य जनता के मन में भ्रम और उनकी सदस्यता पर संदेह उत्पन्न हो रहा है। इस घटना ने सांसदों के अधिकारों की समाप्ति की भी चिंता जताई है, जो एक संविधानिक लोकतंत्र के मूल तत्व हैं। यहां न्याय और संविधान की समानता के मुद्दे पर विचार किया जाना चाहिए, ताकि इस प्रकार की घटनाओं को फिर से न देखा जाए।
By Neelam Singh.
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